शेर कहने की तबीअत न रही जिस से आमद थी वो सूरत न रही उस की दहलीज़ से उठ जाऊँ मगर लोग सोचेंगे मोहब्बत न रही अब मिला अद्ल, गया दौर-ए-शबाब मुंसिफ़ी तेरी भी वक़अत न रही वक़्त की दौड़ में रुकना था कठिन साँस लेने की भी फ़ुर्सत न रही वक़्त-ए-दीदार अजब हुक्म हुआ होश खोने की इजाज़त न रही तुम से जज़्बात थे जब तुम ही नहीं फिर ज़माने से शिकायत न रही मैं निकल आऊँ बयाबाँ से अगर शोहरा हो जाएगा वहशत न रही भीड़ में ढूँडें कहाँ क़ैस को अब वो जो पहचान थी वहशत न रही दौर-ए-रफ़्ता के नमूने हो 'सलाम' अब तकल्लुफ़ की ज़रूरत न रही