दाम सौ रखते हैं लफ़्ज़ों में सुख़नवर मुझ से बात कीजेगा ज़रा सोच समझ कर मुझ से मुझे खलती नहीं तन्हाई सफ़र की यूँ भी गुफ़्तुगू करते हैं सब राह के पत्थर मुझ से वो जो हैं लज़्ज़त-ए-तफ़्हीम-ए-सुख़न से वाक़िफ़ शे'र सुनते हैं वही लोग मुकर्रर मुझ से मुझ को डर था कि कहीं फ़ासले बढ़ जाएँ मगर वो क़रीब आ गया कुछ और सिमट कर मुझ से वो जो बिछड़ा है सुख़न लौट के कब आएगा पूछते रहते हैं ये शाम के मंज़र मुझ से