शेर क्या है ग़ुबार-ए-ख़ातिर है ताइर-ए-फ़िक्र का कोई पर है भूल सकते हो ख़ुद को पढ़ कर इसे एक मंतर मुझे जो अज़बर है वादी-ए-याद में तो हर जानिब चाँदनी रात का सा मंज़र है बात कर देखिए मिरा लहजा मेरे अशआ'र से भी बेहतर है दैर-ओ-का'बा के मोड़ से आगे बाएँ मुड़ जाएँ तो मिरा घर है डालिए इस पे बोझ सज्दों का हाँ मगर सोच कर कि ये सर है शैख़ साहिब न तोड़िए इस को ये मिरा दिल नहीं ये साग़र है तुम जिसे पूज लो वो है भगवान मैं उठा लूँ जिसे वो पत्थर है किस की 'राहत' की बात करते हो छोड़िए वो तो एक काफ़िर है