समझ के सारे सहारों को राएगाँ हम ने उतार फेंका है कश्ती का बादबाँ हम ने ये कम सुबूत है महशर में बे-गुनाही का कि अपने होंटों पे फेरी नहीं ज़बाँ हम ने जो बात छेड़ी है हम ने हमें भी इल्म नहीं कि ख़त्म करना है इस बात को कहाँ हम ने दबे दबे हैं अज़ल से इसी लिए हम लोग उठाए रक्खा है काँधों पे आसमाँ हम ने उंडेल ली है जहन्नुम की आग सीने में रगों में भर लिया दोज़ख़ का सब धुआँ हम ने फ़क़त गुलों को नहीं नज़्म-ए-गुलिस्ताँ से गिला सुना है ग़ौर से काँटों का भी बयाँ हम ने हम एक दूजे से डरते हैं इस लिए 'राहत' रखा है जन्नत-ओ-दोज़ख़ को दरमियाँ हम ने