शिकस्ता अक्स था वो या ग़ुबार-ए-सहरा था वो मैं नहीं था जो ख़ुद अपने घर में रहता था अजीब शर्त-ए-सफ़र थी मिरे लिए कि मुझे सियाह धूप में रौशन चराग़ रखना था फ़सील-ए-संग से मुझ को उतारने आया वो इक सितारा जो मैं ने कभी न देखा था न जाने कौन से मौसम में जी रहा था मैं कि मेरी प्यास थी मेरी न मेरा दरिया था शजर की छाँव से बाहर है रिज़्क़ ताइर का वो साहिलों पे न ठहरा कभी जो प्यासा था किसे पुकार रहा था मिरा अधूरापन मैं गर्म रेत पे ताज़ा गुलाब रखता था हज़ार कम-सुख़नी दरमियाँ रही फिर भी वो मुझ से आन मिला था तो रंग बरसा था मैं बुझ गया तो मिरे जिस्म-ओ-जाँ खुले मुझ पर चराग़ और था कोई जो मुझ में जलता था वो अपने घर में उजाला न कर सका 'जाज़िब' तमाम रात जो सूरज के ख़्वाब रखता था