शिकस्ता छत में परिंदों को जब ठिकाना मिला मैं ख़ुश हुआ कि मिरे घर को भी घराना मिला फ़लक पे उड़ते हुए भी नज़र ज़मीं पे रही मिज़ाज मुझ को मुक़द्दर से ताइराना मिला हम इस के हुस्न-ए-सुख़न की दलील क्या देंगे वो जितनी बार मिला हम से बरमला न मिला किसी की देखती आँखें भी आस पास रहें तुझे मिला तो ब एहसास-ए-मुजरिमाना मिला मैं अपनी बात दरख़्तों से कह के रोता हूँ कि मेरे ग़म को किसी रुत न आशियाना मिला अब आ गया है तो चुप-चाप ख़ामुशी को सन मिरे सुकूत में अपनी कोई सदा न मिला लड़ी सी टूट के आँखों से गिर पड़ी 'नय्यर' लबों से हर्फ़ का कोई भी सिलसिला न मिला