शिकस्ता ख़्वाबों का आँखों से राब्ता कर लें हर एक शब का तक़ाज़ा कि रत-जगा कर लें लगाएँ भीड़ गए ज़र्द-ओ-सब्ज़ लम्हों की और उस हुजूम में फिर ख़ुद को लापता कर लें वगरना जीने न देगा ग़म-ए-हयात का ज़हर किसी के भूले हुए ग़म का फिर नशा कर लें कुछ एहतिजाज भी रक्खें शरीक-ए-ज़ब्त-ए-सितम ज़बाँ है गुंग तो चेहरा सवालिया कर लें वो ज़ख़्म दस्त-ए-तलब हो कि हो गुल-ए-शादाब वो कुछ तो देगा हमीं अर्ज़-ए-मुद्दआ कर लें नज़र है तेरी तवज्जोह के हर तरश्शोह पर पड़े फुवार तो ज़ख़्मों को फिर हरा कर लें दिखाई देने लगा रुख़ पे रंग-ए-बातिन भी बहुत क़रीब हैं हम थोड़ा फ़ासला कर लें