सोफ़ार-ऐ-तसव्वुर है सितारों का हदफ़ है है फ़ातेह अफ़्लाक ये इंसाँ का शरफ़ है इक लम्हा-ए-तख़्लीक़ की आहट है कहीं पर मोती कोई निकलेगा अभी बंद सदफ़ है तू भी तो हटा जिस्म के सूरज से अंधेरे ये महकी हुई रात भी महताब-ब-कफ़ है जिस लफ़्ज़ पे सर अपने कटाए शोहदा ने तारीख़-ए-सियासत से वही लफ़्ज़ हज़्फ़ है हर सम्त फ़रिश्ते हैं कि तर्शे हुए पत्थर इस भीड़ में इंसाँ के लिए भी कोई सफ़ है