शिकस्ता साज़-ए-मोहब्बत की इक सदा हूँ मैं जो रह गई है लरज़ कर वो इल्तिजा हूँ मैं दम-ए-नज़ारा ये दीवानगी-ए-ज़ौक़-ए-निगाह वो मुझ को ढूँडते हैं उन को ढूँढता हूँ मैं जहाँ ये कुफ़्र है तक़दीर का गिला करना अब इस मक़ाम पे अपने को पा रहा हूँ मैं सलाम ऐ निगह-ए-बे-नियाज़-ए-गर्मी-ए-इश्क़ ख़ता मुआ'फ़ कि अब सर्द हो रहा हूँ मैं मिरा ही ज़र्फ़ है इस मय-कदा में ऐ साक़ी कि जाम-ए-तल्ख़ भी हँस हँस के पी रहा हूँ मैं मिरी तलाश में रहती है ख़ुद मिरी मंज़िल ग़लत ख़याल कि मंज़िल को ढूँढता हूँ मैं वहीं से पाई है मंज़िल की राह ऐ 'आसी' जहाँ पे उस की मोहब्बत में खो गया हूँ मैं