शिकवा न बख़्त से है ने आसमाँ से मुझ को पहुँची जो कुछ अज़िय्यत अपने गुमाँ से मुझ को क़ासिद कहे तो है तू पूछे था हाल तेरा तस्दीक़ इस की लेकिन होवे कहाँ से मुझ को आशिक़ न था मैं बुलबुल कुछ गुल के रंग-ओ-बू का इक उन्स हो गया था इस गुल्सिताँ से मुझ को जाता हूँ जिस जगह अब वाँ ख़ानुमाँ है मेरा खोया है ऐ फ़लक तीं गो ख़ानुमाँ से मुझ को बा-वस्फ़-ए-बे-कमाली इज़्ज़त-तलब हूँ 'क़ाएम' दर्खुर न हो सो क्यूँ-कर अहल-ए-जहाँ से मुझ को