शिकवा-ए-ग़म न मसाइब का गिला करते हैं

शिकवा-ए-ग़म न मसाइब का गिला करते हैं
रब का हर हाल में हम शुक्र अदा करते हैं

वो इबादत नहीं करते हैं रिया करते हैं
जो दिखावे के लिए ज़िक्र-ए-ख़ुदा करते हैं

मा'रिफ़त इश्क़ की हो जाती है जिन को हासिल
सज्दा-ए-शौक़ वो तेग़ों में अदा करते हैं

ख़त्म होगी न कभी हक़ के चराग़ों की ज़िया
ये दिए तुंद हवा में भी जला करते हैं

अपने बेगाने की तफ़रीक़ नहीं उन का शिआ'र
जो भले लोग हैं वो सब का भला करते हैं

वो भी मुजरिम हैं बराबर के सितमगर की तरह
हर सितम सह के जो ख़ामोश रहा करते हैं

जब लगा रोग मोहब्बत का तो महसूस हुआ
लोग क्यों इश्क़ को आज़ार कहा करते हैं

हक़-बयानी है अगर जुर्म तो हम हैं मुजरिम
ज़ुल्म से लड़ना ख़ता है तो ख़ता करते हैं

हुस्न पैदा करो किरदार-ओ-अमल में अपने
ग़ैर को देखो न 'अहसन' कि वो क्या करते हैं


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