तमाम शहर है अपना मगर अकेला हूँ

तमाम शहर है अपना मगर अकेला हूँ
है मेरे साथ ज़माना मगर अकेला हूँ

अजीब कैफ़ियत-ए-बे-क़रारी-ए-दिल है
हुजूम-ए-ग़म का है नर्ग़ा मगर अकेला हूँ

तुम्हारे आने से ही दूर होगी तन्हाई
है तेरी यादों ने घेरा मगर अकेला हूँ

चला हूँ शहर-ए-सितम में पयाम-ए-अम्न लिए
बुलंद है मिरा जज़्बा मगर अकेला हूँ

तू साथ दे तो मैं छू लूँ बुलंदी-ए-अफ़्लाक
मिरा भी अज़्म है ऊँचा मगर अकेला हूँ

कुछ और प्यार के झरने बहें तो बात बने
मैं हूँ ख़ुलूस का चश्मा मगर अकेला हूँ

न जाने कैसी है क़िस्मत मुझ एक क़तरे की
हुआ हूँ शामिल-ए-दरिया मगर अकेला हूँ

रह-ए-वफ़ा में कोई हम-सफ़र नहीं मेरा
मैं कारवाँ का हूँ हिस्सा मगर अकेला हूँ

किया न तर्क जहाँ को हुआ न सहरा-नवर्द
बना है लोगों से रिश्ता मगर अकेला हूँ

न जाने खो गई अपनाइयत कहाँ 'अहसन'
लगा है अपनों का मेला मगर अकेला हूँ


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