शिकवा है किसी से न शिकायत न गिला है ये ज़ीस्त मिरे जुर्म-ए-मोहब्बत की सज़ा है ऐ साक़ी-ए-मय-ख़ाना तू क्या सोच रहा है छाई हुई मयख़ाने पे सावन की घटा है ग़ैरों की शिकायत है न कुछ तुझ से गिला है मुझ से तो हर इक हमदम-ए-देरीना ख़फ़ा है ये तेरा करम है कि मोहब्बत का सिला है हर ज़ख़्म तिरी याद का इक फूल बना है ऐ चारागरो तुम से तो ये भी नहीं होता इक हर्फ़-ए-तसल्ली जो दवा है न दुआ है अब हर्फ़-ए-तमन्ना भी नहीं लब पे हमारे क्या कहिए कहाँ इश्क़ ने दम तोड़ दिया है दामन की हमें अपने ख़बर हो न हो लेकिन हम अहल-ए-जुनूँ ने तिरा दामन तो सिया है ऐ मौज-ए-हवादिस न उलझ हम से कि हम ने इक आन में तूफ़ान का रुख़ मोड़ दिया है सच पूछिए 'ज़मज़म' तो अब इस दौर-ए-हवस में जीने ही का कुछ लुत्फ़ न मरने का मज़ा है