शिकवा तुम्हारा अब नहीं करते किसी से हम मानूस हो गए हैं ग़म-ए-ज़िंदगी से हम धोका न दे सकेगी हमें तल्ख़ी-ए-हयात खाएँगे अब फ़रेब किसी अजनबी से हम गुम हो के जिस में रह गए कितने ही कारवाँ गुज़रे हैं बार बार उसी तीरगी से हम हँस हँस के जिस ने लूट लीं सारी मसर्रतें अब भीक माँगते हैं उसी से ख़ुशी की हम दीवाना कहने वाले तुझे कुछ ख़बर भी है लेते हैं काम होश का दीवानगी से हम सज्दा ब-क़द्र-ए-होश फ़रेब-ए-तमाम है वाक़िफ़ हैं ख़ूब रस्म-ओ-रह-ए-बंदगी से हम इरफ़ान-ए-ज़िंदगी उसे क्यूँकर हुआ नसीब ये राज़ पूछ लेंगे किसी दिन 'वसी' से हम