शीराज़ा-ए-हयात की हर शय बिखर गई क्या हो गया वफ़ा को मोहब्बत किधर गई मेरी शब-ए-फ़िराक़ का आलम न पूछिए क़ल्ब-ओ-नज़र पे एक क़यामत गुज़र गई क्या कीजिए शिकायत-ए-ग़म-हा-ए-रोज़गार ये भी गुज़र ही जाएगी इतनी गुज़र गई दिल में मचल के रह गई सज्दों की आरज़ू जल्वे के इंतिज़ार में ताब-ए-नज़र गई क्या पूछते हो दैर-ओ-हरम की हक़ीक़तें पर्दे पड़े हुए थे जहाँ तक नज़र गई 'शाहिद' वफ़ा-शिआ'रों को हम ने भुला दिया इंसानियत के साथ शराफ़त भी मर गई