शीशे का घर समझ के जो माइल हुए हैं लोग ख़ुद अपने पत्थरों से ही घाइल हुए हैं लोग हल हो नहीं रहे हैं हज़ारों नशिस्त में कुछ इस तरह से उलझे मसाइल हुए हैं लोग चेहरों पे ग़म की सूइयाँ चलती हैं रोज़-ओ-शब जैसे पुरानी घड़ियों के डायल हुए हैं लोग आबादियों की बर्फ़ की सिल पर खड़े हुए सहरा की तरह प्यास के साइल हुए हैं लोग रोज़-ओ-शब-ए-हयात के ख़ानों में बाँट कर क़िस्तों में ख़ुद-कुशी के वसाइल हुए हैं लोग 'अनवर' अभी तो शहर-ए-तअ'ल्लुक़ की राह में दीवार-ए-चीन की तरह हाइल हुए हैं लोग