शोहरत-ए-तर्ज़-ए-फ़ुग़ाँ आम हुई जाती है कोशिश-ए-ज़ब्त भी नाकाम हुई जाती है मस्त हैं और तलब-ए-जाम हुई जाती है बे-ख़ुदी होश का पैग़ाम हुई जाती है मुस्कुराता है हसीं पर्दा-ए-गुलशन में कोई और कली मुफ़्त में बदनाम हुई जाती है क़ैद में भी है असीरों का वही जोश-ए-अमल मश्क़-ए-पर्वाज़ तह-ए-दाम हुई जाती है तोड़ कर दिल निगह-ए-मस्त न फेर ऐ साक़ी बज़्म की बज़्म ही बे-जाम हुई जाती है लब जो खोले तो गुलिस्ताँ में कली कौन कहे चुप भी रहती है तो बदनाम हुई जाती है मुझ को ले जाएगी मंज़िल पे मिरी सुब्ह-ए-यक़ीं लाख रस्ते में मुझे शाम हुई जाती है नावक-अंदाज़ी-ए-जानाँ का असर है कि 'फ़िगार' एक दुनिया मिरी हमनाम हुई जाती है