शोख़ियाँ मुझ पे क्यूँ आश्कारा नहीं क्या मिरा दिल मोहब्बत का मारा नहीं क्या कोई ऐसा लम्हा भी गुज़रा है जब शीशा-ए-दिल में तुझ को उतारा नहीं इक ज़माना हुआ आँसूओं के बिना रात काटी नहीं दिन गुज़ारा नहीं शौक़ से इश्क़ का इम्तिहाँ लीजिए आज भी मैं थका और हारा नहीं थामते ही कलाई वो कहने लगे अब ख़ुदारा नहीं अब ख़ुदारा नहीं शाम ही से अंधेरा है चारों तरफ़ ऐसा लगता है ये घर हमारा नहीं इस सुलगती सी दुनिया में 'तश्ना' कोई काश कहता कि वो ग़म का मारा नहीं