वतन के जाँ-निसारों को मिलेंगी बेड़ियाँ कब तक लिया जाएगा आख़िर-कार हम से इम्तिहाँ कब तक उठा करता रहेगा यूँ नशेमन से धुआँ कब तक हमारे आशियानों पर गिरेंगी बिजलियाँ कब तक ज़मीर अहल-ए-सियासत का भला किस रोज़ जागेगा जलेगा नफ़रतों की आग में हिन्दोस्ताँ कब तक न समझाओ हमें मंशूर अपने बस ये बतला दो हमें भर पेट मिल पाएँगी आख़िर रोटियाँ कब तक असर कब तक करेंगी ज़हर में डूबी ये तक़रीरें दिलों में आप रखेंगे हमारे दूरियाँ कब तक भला किस रोज़ टूटेंगी रिवायत की ये ज़ंजीरें जहेज़ों के लिए जलती रहेंगी बेटियाँ कब तक जहाँ हंगामा बरपा हो वहाँ है कुफ़्र ख़ामोशी ऐ 'तश्ना' तुम भी कुछ बोलो रहोगे बे-ज़बाँ कब तक