शोर अब आलम में है उस शोबदा-पर्दाज़ का चर्ख़ भी इक शोबदा है जिस सरापा नाज़ का सादा-रूई क़हर थी और उस पे अब आया है ख़त देखिए अंजाम क्या होता है इस आग़ाज़ का तीर होवे जिस की मिज़्गाँ और हो अबरू कमाँ दिल न हो क़ुर्बान क्यूँ कर ऐसे तीर-अंदाज़ का उस के शाहीन-ए-निगह को ताइर-ए-दिल के लिए पंजा-ए-मिज़्गाँ नहीं गोया है चुंगुल-बाज़ का 'ऐश' मुझ को बे-पर-ओ-बाली पर-ए-परवाज़ है मैं नहीं मोहताज कुछ बाल-ओ-पर-ए-परवाज़ का