शोर एहसास में ऐसा है कि महशर कहिए हर नए शहर को चीख़ों का समुंदर कहिए दिन का सहरा ये सियह धूप के उमँडे लश्कर दिल को तपते हुए नेज़े पे गुल-ए-तर कहिए वो हैं आकाश का मंज़र कई रंगों की तरह बंद शीशों में मुझे कर्ब का दफ़्तर कहिए तुम सही फिर भी तो मुरझा गए झीलों में कँवल इन हवाओं को दबी आग की चादर कहिए रात दिन बरसे हैं फूलों में मगर प्यास रही कैसे बादल में उन्हें ज़हर की गागर कहिए दर्द-ए-बे-दर्द है बेहिस हैं हिसों के पैकर दिल की आवाज़ है शीशों को भी पत्थर कहिए फ़िक्र-ओ-ग़म सब के मकानों में बसे हैं यकसाँ शीश-महलों को मिरे घर के बराबर कहिए वो जो आ जाएँ मोहब्बत का उजाला बन कर चाँद को रंग भरी रात का झूमर कहिए आसमाँ पर है ये 'असरार' ज़मीं पर है कभी दिल को आफ़ाक़ में उड़ता हुआ शहपर कहिए