शोर-ओ-ग़ुल आहें कराहें और अलम पैहम था 'शाद' रात मेरे दिल की बस्ती का अजब मौसम था 'शाद' बर्क़-ओ-बाराँ की नज़र मुझ पर रही आठों पहर क्यों मिरे ही आशियाँ पर आसमाँ बरहम था 'शाद' साँस लेना भी गिराँ था ना-तवानी पर मिरी हिज्र का आलम भी जैसे नज़्अ' का आलम था 'शाद' बादलों की आड़ से कोई मुख़ातब था मगर लफ़्ज़ बे-मा'नी थे और लहजा भी कुछ मुबहम था 'शाद' मेरे दिल पर थी मुसल्लत वहशतों की तीरगी पर इनायत का चराग़ाँ भी ज़रा कम-कम था 'शाद' आँसूओं से तर मिला हर शख़्स का दामन वहाँ हर किसी के दिल में पिन्हाँ जैसे कोई ग़म था 'शाद' अपनी बख़्शिश के लिए था हर कोई कोशाँ वहाँ मैं भी सफ़ में था मगर बा-दीदा-ए-पुर-नम था 'शाद'