शोर-ए-अतश जो फूलों की हर अंजुमन में है कैफ़िय्यत-ए-बहार की शिद्दत चमन में है फ़ैज़-ए-नसीम से हैं खिले गुल रविश रविश फ़िरदौस की बहार हमारे चमन में है वो कैफ़ियत कहाँ है मय-ए-नौ-कशीद में जो लुत्फ़ जो मज़ा कि शराब-ए-कुहन में है शहनाज़-ए-गुल बता दे ज़रा अहल-ए-शौक़ को ख़ुश्बू ये किस बदन की तिरे पैरहन में है 'साहिर' के फ़ैज़-ओ-लुतफ़ से कह लेता है ग़ज़ल अब 'राज़' का शुमार भी अहल-ए-सुख़न में है