शोर-ए-दरिया है कहानी मेरी पानी इस का है रवानी मेरी कुछ ज़ियादा ही भली लगती है मुझ को तस्वीर पुरानी मेरी जब भी उभरा तिरा महताब-ए-ख़याल खिल उठी रात की रानी मेरी बढ़ के सीने से लगा लेता हूँ जैसे हर ग़म हो निशानी मेरी मेहरबाँ मुझ पे है इक शाख़-ए-गुलाब कैसे महके न जवानी मेरी फिर तिरे ज़िक्र की सरसों फूली फिर ग़ज़ल हो गई धानी मेरी कुछ तो आ'माल बुरे थे अपने कुछ सितारों ने न मानी मेरी लिखी जाएगी तिरे बर्फ़ के नाम जो तमन्ना हुई पानी मेरी तुम ने जो भी कहा मैं ने माना तुम ने इक बात न मानी मेरी मुख़्तसर बात थी जल्दी भी थी कुछ इस पे कुछ ज़ूद-बयानी मेरी