शुआ-ए-ज़र न मिली रंग-ए-शाइराना मिला मता-ए-नूर से क्या मुझ को मुंसिफ़ाना मिला मैं किस से पूछूँ कि इस सैल-ए-ख़ाक से बाहर किसे निकलना न था किस को रास्ता न मिला कहीं दिखाई न दी अंजुम-ए-दुआ की चमक घने अंधेरे में इक हाथ भी उठा न मिला भटक रहा हूँ मैं इस दश्त-ए-संग में कब से अभी तलक तो दर-ए-आईना खुला न मिला जलाए फिरता रहा मिश्अल-ए-तजस्सुस मैं मगर सुराग़ कहीं खोई शाम का न मिला उगलता होगा कभी सोना चाँदी ख़ित्ता-ए-दिल मुझे तो एक भी सिक्का यहाँ पड़ा न मिला नवाह-ए-जाँ में वो तूफ़ान-ए-हब्स था कि 'हसन' हवा तो क्या कि कहीं हवा न मिला