शुग़्ल ही शुग़्ल है और आह-ए-सहर से क्या काम दर्द-मंदान-ए-मोहब्बत को असर से क्या काम अबरू अपनी सलामत रहे ज़र से क्या काम अश्क-ए-तर से मुझे मतलब है गुहर से क्या काम याद से गेसू-ओ-रुख़ की जिन्हें मतलब ठहरा शाम से उन को ग़रज़ क्या है सहर से क्या काम तू हो ज़ुल्फ़ें हों तिरी शाना हो आईना हो तुझ को बे-दर्द मिरे दर्द-ए-जिगर से क्या काम तेरी उल्फ़त ही नहीं दिल में तो दिल से मतलब तेरा सौदा ही नहीं सर में तो सर से क्या काम सरगुज़श्त-ए-दिल-ए-मजरूह लिखी ज़ालिम को हिज्र में हम ने लिया ख़ून-ए-जिगर से क्या काम जिन को हँस हँस के रुलाना ही फ़क़त आता हो उन के दामन को मिरे दीदा-ए-तर से क्या काम दिल-ए-नाज़ुक न धड़क जाए किसी का 'मुज़्तर' ख़ून जब ये हो तो नालों को असर से क्या काम