शुक्र है ख़ैरियत से हूँ साहब आप से और क्या कहूँ साहब अब समझने लगा हूँ सूद-ओ-ज़ियाँ अब कहाँ मुझ में वो जुनूँ साहब ज़िल्लत-ए-ज़ीस्त या शिकस्त-ए-ज़मीर ये सहूँ मैं कि वो सहूँ साहब हम तुम्हें याद करते रो लेते दो-घड़ी मिलता जो सुकूँ साहब शाम भी ढल रही है घर भी है दूर कितनी देर और मैं रुकूँ साहब अब झुकूँगा तो टूट जाऊँगा कैसे अब और मैं झुकूं साहब कुछ रिवायात की गवाही पर कितना जुर्माना मैं भरूँ साहब