मिरा ग़ुरूर तुझे खो के हार मान गया मैं चोट खा के मगर अपनी क़द्र जान गया कहीं उफ़ुक़ न मिला मेरी दश्त-गर्दी को मैं तेरी धुन में भरी काएनात छान गया ख़ुदा के बा'द तो बे-इंतिहा अँधेरा है तिरी तलब में कहाँ तक न मेरा ध्यान गया जबीं पे बल भी न आता गँवा के दोनों-जहाँ जो तू छिना तो मैं अपनी शिकस्त मान गया बदलते रंग थे तेरी उमंग के ग़म्माज़ तू मुझ से बिछड़ा तो मैं तेरा राज़ जान गया ख़ुद अपने आप से मैं शिकवा-संज आज भी हूँ 'नदीम' यूँ तो मुझे इक जहान मान गया