शुमार करता है मुझ को वो हर किसी की तरह मुझे तो मौत भी आती है ज़िंदगी की तरह जहाँ के पेड़ भी हम से कलाम करते थे अब उस गली से गुज़रते हैं अजनबी की तरह तुझे बयान भी कर दूँ प कौन मानेगा उतर रहा है तू मुझ में किसी वही की तरह वो तिश्ना-लब हूँ कि पत्थर निचोड़ कर रख दूँ मगर ये प्यास तो बहती नहीं नदी की तरह मैं उस को देखता रहता हूँ टिकटिकी बाँधे फ़सील घूमने लगती है फिर घड़ी की तरह ज़रा सी देर को ओझल अगर वो होता है अंधेरा फैलने लगता है रौशनी की तरह