शुऊर तक अभी उन की कहाँ रसाई है अभी तो कितने ख़ुदाओं की वाँ ख़ुदाई है गुमान-ए-तीरगी रख़शंदगी पे होने लगा दयार-ए-शब ने अजब दास्ताँ सुनाई है अब इस पे दूर निकल आए तो ख़फ़ा क्यूँ हो ये राह भी तो तुम्ही ने हमें दिखाई है कभी जो मुझ से मिले वो रहे ख़मोश मगर पस-ए-सुकूत-ए-ज़बाँ ख़ूब हम-नवाई है हर एक फ़िक्र की तह में हो जज़्बा-ए-ख़ालिस बहुत ही सख़्त तक़ाज़ा-ए-पारसाई है बहुत ही ख़ूब कि दरिया के पास रहते हो कहो कि प्यास भी अपनी कभी बुझाई है जो ख़ुद ही जादा-ओ-मंज़िल से ना-बलद है 'उबैद' अजीब बात यहाँ उस की रहनुमाई है