सिमट सिमट सी गई थी ज़मीं किधर जाता मैं उस को भूलता जाता हूँ वर्ना मर जाता मैं अपनी राख कुरेदूँ तो तेरी याद आए न आई तेरी सदा वर्ना मैं बिखर जाता तिरी ख़ुशी ने मिरा हौसला नहीं देखा अरे मैं अपनी मोहब्बत से भी मुकर जाता कल उस के साथ ही सब रास्ते रवाना हुए मैं आज घर से निकलता तो किस के घर जाता मैं कब से हाथ में कासा लिए खड़ा हूँ 'शाज़' अगर ये ज़ख़्म ही होता तो कब का भर जाता