सीने में उस के इक दिल-ए-दर्द-आश्ना तो है वो फ़लसफ़ी नहीं है मगर सोचता तो है ताज़ा हवा से कह दो चली आए बे-ख़तर दर बंद है ज़रूर दरीचा खुला तो है क़िस्मत पे नाज़ क्यों न करूँ मुद्दतों के बा'द तुम सा रह-ए-हयात में साथी मिला तो है ख़्वाबों की नर्म सेज पे सोए न हम कभी मंज़िल की जुस्तुजू में पसीना बहा तो है बे-नूर सा इक आइना मेरे मकान का हर ऐब हर हुनर मिरा पहचानता तो है अहल-ए-क़लम न मानेंगे लगता है मेरी बात अल्लाह की किताब में सब कुछ लिखा तो है दिल बाग़-बाग़ क्यों न हो ये सोच कर 'शफ़क़' शहर-ए-ग़ज़ल में कोई मिरा हम-नवा तो है