सीने पर रख हिजरत का पत्थर चुप-चाप घर में रह और छोड़ दे अपना घर चुप-चाप चीख़ चीख़ कर मौजें मुझे बुलाती थीं मैं डूबा तो बैठ गया सागर चुप-चाप मैं सहरा के बंद मकाँ में रहता हूँ ख़ुशबू कहाँ से आती है अंदर चुप-चाप गोरा-चट्टा रूप वो काला जादू था मुझ पर फूँक के भाग गया मंतर चुप-चाप मैं ने अपना सीना चीर के दिखलाया लौट गए क्यूँ दर्द के सौदागर चुप-चाप मेरे आँसू पीने शाम को इक चिड़िया मेरी गोद में आ बैठे उड़ कर चुप-चाप इक तन्हा है 'अश्क' जो बोले जाता है सब अंदर ख़ामोश हैं सब बाहर चुप-चाप