सितम के पर्दे में फिर करम कर सुकून को इज़्तिराब कर दे दिल-ए-फ़सुर्दा को ज़िंदगी दे शबाब को फिर शबाब कर दे ये माना लाखों हिकायतें हैं हज़ारों दिल में शिकायतें हैं मगर कहें क्या जो इक नज़र में कोई हमें ला-जवाब कर दे ठहर दिल-ए-बे-क़रार दम भर वो आए हैं बे-हिजाब हो कर सँभल कि ये इज़्तिराब-ए-नौ ही कहीं न हाइल नक़ाब कर दे वो आलम-ए-बे-ख़ुदी हो दिल पर वो कैफ़ियत बे-हिसी की छाए जो आरज़ू-ए-करम मिटा दे जो बे-नियाज़-ए-इ'ताब कर दे न आएगा लब पे हर्फ़-ए-मतलब न खुल सकेगी ज़बान-ए-'कैफ़ी' निगाह-ए-हसरत को तर्जुमाँ कर ख़मोशियों को जवाब कर दे