कभी ज़मीन कभी आसमाँ से लड़ता है अजीब शख़्स है सारे जहाँ से लड़ता है किसी के इश्क़ की मन्नत का तेल है उस में इसी लिए तो दिया आस्ताँ से लड़ता है हमें ये बाँझ बहू बे-निशान कर देगी ये बात कह के वो बेटे की माँ से लड़ता है किराएदार की नींद इस क़दर परेशाँ है वो रोज़ ख़्वाब में मालिक मकाँ से लड़ता है ये किस के क़र्ज़ का है बोझ मेरी मय्यत पर ये कौन है जो मिरे ख़ानदाँ से लड़ता है दुआ है ख़ैर हो उस घर की जिस में रो रो कर कोई बुज़ुर्ग किसी नौजवाँ से लड़ता है बस एक ख़ास निशानी है मेरे मदफ़न की कि इस मकाँ में कोई ला-मकाँ से लड़ता है बड़े यक़ीन से कुछ बे-यक़ीन माँगते हैं वो इक यक़ीन जो वहम-ओ-गुमाँ से लड़ता है अज़ान देता हूँ जब मैं सुख़न की मस्जिद में हर एक बे-नवा मेरी अज़ाँ से लड़ता है मैं अपने अहद का 'वासिफ़' हूँ और शाइ'र हूँ ज़माना किस लिए मुझ ना-तवाँ से लड़ता है