सियाह रात से हम रौशनी बनाते हैं पुरानी बात को अक्सर नई बनाते हैं कल एक बच्चे ने हम से कहा बनाओ घर सो हम ने कह दिया ठहरो अभी बनाते हैं हम एक और ही मंज़र की ताक में हैं मियाँ ये धूप-छाँव के नक़्शे सभी बनाते हैं मुसव्विरान-ए-फ़ना अपने कैनवस पे कभी न कोई शहर न कोई गली बनाते हैं हम उस दयार में ज़िंदा हैं जिस के सारे लोग कभी फ़तीला कभी लबलबी बनाते हैं