स्याह नामा-ए-आमाल इक बहाना था किसी तरीक़े से मक़्सद मुझे जलाना था सुना रहा था हर इक नख़्ल दास्ताँ कोई हर इक मकान के लब पर कोई फ़साना था लिबास में वो हसीं और पुरकशिश ठहरे शरीर नज़रों से जिन को बदन छुपाना था जगा दिया था उसे भी अज़ान के डर ने मुझे भी सुब्ह-सवेरे सफ़र पे जाना था बिछा हुआ था समुंदर निगाह के आगे चमकती रेत का मंज़र भी क्या सुहाना था पहुँच रहा हूँ मैं ताख़ीर से सर-ए-मंज़िल कि क़ाफ़िले को मुझे साथ ले कर आना था कोई पनाह मयस्सर है आज 'ख़ावर' को न कल जहाँ में कहीं क़ैस का ठिकाना था