सियाह रंग दरीचों में भर गया इक शख़्स अभी मकान की छत से उतर गया इक शख़्स तमाम शहर में परछाइयों का घेरा है उफ़ुक़ की रौशनियों में बिखर गया इक शख़्स बदन से झड़ती हुई राख का सुराग़ न पूछ हमारे जिस्म के अंदर ही मर गया इक शख़्स बदन ख़ला में मु'अल्लक़ दिखाई देता है दिल-ओ-दिमाग़ पे जादू सा कर गया इक शख़्स वो अब्र था तो सराबों ही पे बरसता रहा बना जो धूप तो बर्बाद कर गया इक शख़्स फलाँग कर अलम-ओ-यास के नशेब-ओ-फ़राज़ उदासियों के नगर से गुज़र गया इक शख़्स कमाल ये है कि पेड़ों की साएँ साएँ में 'शाद' ख़ुद अपने क़दमों की आहट से डर गया इक शख़्स