सम्त-ए-गिर्दाब बढ़ा हूँ मैं पवन के मानिंद मौज-दर-मौज समंदर है शिकन के मानिंद छुपने वाला कोई बाग़ों में दिखाई न दिया ख़ुशबुएँ उड़ती रहीं बू-ए-बदन के मानिंद धुंद में लिपटे हुए ऐसे भी चेहरे देखे शम' की लौ में उतरते हैं किरन के मानिंद फेंक दो मुझ को अँधेरों की लहद में यारो चाँदनी फैल गई रंग-ए-कफ़न के मानिंद अब भी छा जाता है यादों की सुहानी रुत में तेरा एहसास दिमाग़ों पे थकन के मानिंद 'शाद' मटियाले जज़ीरों से गुज़रते होंगे ये बगूले भी ग़ज़ालान-ए-ख़ुतन के मानिंद