सियाह सफ़्हा-ए-हस्ती पे मैं उभर न सका मिरी शबीह में कोई भी रंग भर न सका हर एक राह थी मसदूद कोहसारों में बुलंदियों से किसी तरह मैं उतर न सका बुरे दिनों का मैं इक ख़ौफ़नाक मंज़र हूँ मुझे कभी भी कोई शख़्स याद कर न सका नुकीले ख़ार थे शीशे थे संग-रेज़े थे रह-ए-हयात से बे-दाग़ मैं गुज़र न सका पुकारता रहा मुझ को कोई मगर 'शाहिद' मैं मौज-ए-बहर था पल भर कहीं ठहर न सका