सियाह-ख़ाना-ए-जाँ में शरार-ए-शौक़ की है ये ताज़गी ये दमक नौ-बहार शौक़ की है तमाम सब्ज़ा-ओ-दीवार ज़र्द है फिर भी दबी दबी सी सदा आबशार-ए-शौक़ की है यही बदन से बदन का है वालिहाना कलाम मिरी रगों में जो मस्ती ख़ुमार-ए-शौक़ की है न तुंद-ओ-तेज़ हवा है न मौज-ए-तूफ़ाँ-ख़ेज़ यही तो उम्र मियाँ कारोबार-ए-शौक़ की है है दीदनी दर-ओ-दीवार आरज़ू की चमक अजीब रौशनी शम-ए-मज़ार-ए-शौक़ की है निगाह-ए-नाज़ फ़ुसूँ-आफ़रीं को है मा'लूम कि नोक टूटी हुई दिल में ख़ार-ए-शौक़ की है यही है नुक़्ता-ए-आग़ाज़ शहर-ए-गुल 'इशरत' इसी दयार में ख़ुश्बू दयार-ए-शौक़ की है