तह में हर पैकर की इक पैकर उभरता है तिरा कौन इज़हार-ए-मुसलसल रोक सकता है तिरा क़त्ल हो जाता है जब सूरज दिलों के दश्त में गहरी ज़ुल्मत में मअन शोला लपकता है तिरा नक़्श उभरते हैं तिरी ख़ुश्बू के सतह-ए-ख़ाक पर बे-सदा गुम्बद में भी ताइर चहकता है तिरा साग़र-ए-गुल से हज़ारों रंग उछलते हैं तिरे इस्म-ए-आज़म सब्ज़ लौहों पर चमकता है तिरा ताज़ा-दम है कितनी सदियों का सफ़र करने के ब'अद क़ाफ़िला कब दूरी-ए-मंज़िल से थकता है तिरा लहलहाता है दिल-ए-इशरत में रोज़ ओ शब वो नख़्ल जिस के बर्ग ओ शाख़ में मौसम महकता है तिरा