सियाह-रात पशेमाँ है हम-रकाबी से वो रौशनी है तिरे ग़म की माहताबी से सबा के हाथ है अब इज़्ज़त-ए-निगाह मिरी चमन महकने लगा गुल की बे-हिजाबी से फ़रार उन से है मुश्किल वो दस्तरस में नहीं ये ज़र्द ज़र्द से मौसम वो दिन गुलाबी से लहू लहू नज़र आती है शाख़-ए-गुल मुझ को खिले वो फूल तिरी ताज़ा इंक़िलाबी से अजब नहीं है कि पा जाएँ क़ाफ़िले मंज़िल हमारे नक़्श-ए-क़दम की सितारा-ताबी से कोई किताब जो खोलें तो क्या पढ़ें 'फ़ाख़िर' खुलीं निगाह में चेहरे अगर किताबी से