सियासी मसनदों की पासबानी क्यों नहीं करते कि सच्चे लोग आख़िर हुक्मरानी क्यों नहीं करते इसी इक बात ने मुझ को परेशाँ कर के रक्खा है मिरे अशआ'र मेरी तर्जुमानी क्यों नहीं करते तुम्हारी शान में वो लब-कुशाई करता रहता है पलट कर तुम कभी आतिश-बयानी क्यों नहीं करते बशर के ही मुक़द्दर में लिखीं क्या हिजरतें सारी फ़रिश्तो तुम कभी नक़्ल-ए-मकानी क्यों नहीं करते अगर कुछ भी कहो उन से निकल आती हैं तलवारें ख़ुदा वो गुफ़्तुगू आख़िर ज़बानी क्यों नहीं करते