सोच का इक जलता सा दिया है सोया हुआ दुख जाग उठा है चेहरा चेहरा बोझ थकन का आधे रस्ते पर बैठा है गहरी यादों का सूरज भी धीरे धीरे डूब चला है आग लगा कर अपने घर का कोई तमाशा देख रहा है ख़ाली हाथ और ख़ाली चेहरे पानी रस्ता ढूँढ रहा है किरनों की मतवाली फ़ज़ा में सूरज सा इक थाल गड़ा है रस्ते जाते हैं गाँव को शहर ने चेहरा बदल लिया है मुझ में कोई बस जाए फिर ख़ाली कमरा बोल रहा है दूर चलें 'मख़दूम' यहाँ से इक उड़ते पंछी ने कहा है