सोचा कि वा हो सब्ज़ दरीचा जो बंद था पीलाहटों का चेहरा बहुत फ़िक्रमंद था हर साँस थूकती थी लहू ज़र्द रंग का हर शख़्स उस गली का अज़िय्यत-पसंद था मीठे तबस्सुमों को लिए सब से बात की ख़ुद से किया कलाम तो लब ज़हर-क़ंद था बौना था वो ज़रूर मगर इस के बावजूद किरदार के लिहाज़ से क़द का बुलंद था मैं ने फ़सील-ए-शब को मुक़द्दर नहीं किया तीरा-शबी में घिर के भी दिल अर्जुमंद था