सोचते क्या हैं छलकता जाम ले कर पीजिए उस बेवफ़ा का नाम ले कर आए थे तो हाथ ख़ाली थे हमारे जा रहे हैं सैंकड़ों इल्ज़ाम ले कर इक दिया घर में जलाया था उसे भी ले गया कोई तुम्हारा नाम ले कर धूप आ सकती थी वो आती नहीं है कौन आएगा यहाँ पैग़ाम ले कर काट लीं दरबार ने सब की ज़बानें बुलबुलें ख़ामोश हैं इनआ'म ले कर कौन सी गंगा नहाया है ये सूरज जब भी आया है तो क़त्ल-ए-आम ले कर अब नहीं कोई ज़रूरत हम-सफ़र की चल पड़ा हूँ गर्दिश-ए-अय्याम ले कर आशियाँ होता तो होता लौटना भी क्या करे 'पंछी' अवध की शाम ले कर