सोज़-ए-ग़म से जल रहा हूँ देखता कोई नहीं क्या बुतों का शहर है ग़म-आश्ना कोई नहीं किस के आगे सर झुकाऊँ देवता कोई नहीं पत्थरों के शहर में मेरा ख़ुदा कोई नहीं ज़ुल्म-ओ-इस्तिब्दाद का इक सिलसिला है उस के साथ ये समझता है वो शायद कि ख़ुदा कोई नहीं तेरे दर से उठ के जाएँ तो किधर जाएँ बता जिस तरफ़ भी देखते हैं रास्ता कोई नहीं दूरियाँ होतीं दिलों में तो मिटा लेते उन्हें किस लिए बढ़ कर मिलें कि फ़ासला कोई नहीं हुस्न है मग़रूर पर अपनी अना को क्या हुआ किस को इतना वक़्त है ये सोचता कोई नहीं ज़ख़्म-हा-ए-दिल दिखा कर क्या मिला 'नग़मी' उसे जिस नज़र में क़ीमत-ए-जिंस-ए-वफ़ा कोई नहीं