सोज़-ए-जुनूँ ने वक़्त से डरने नहीं दिया आसान रास्तों से गुज़रने नहीं दिया साहिल पे जा उतरना तो लम्हों की बात थी एक बे-दिली थी जिस ने उभरने नहीं दिया घेरा कुछ इस तरह से ग़म-ए-रोज़गार ने ख़ुद अपने आप में भी उतरने नहीं दिया ऊँची हवेलियों ने भी क्या ज़ुल्म ढाए हैं सूरज भी आँगनों में उतरने नहीं दिया एक सोज़-ए-अंदरूँ ने हर इक मोड़ पर 'जमील' सच्चाइयों से हम को मुकरने नहीं दिया