सोज़-ओ-गुदाज़-ए-इश्क़ का चर्चा न कर सके हुस्न-ए-सितम-ज़रीफ़ को रुस्वा न कर सके वो ज़ख़्म चाहता हूँ मैं ऐ हुस्न-ए-दिल-फ़रेब जिस को तिरी निगाह भी अच्छा न कर सके जब याद आ गया हमें अफ़्साना-ए-अज़ल ग़म-हा-ए-रोज़गार का शिकवा न कर सके उट्ठी निगाह-ए-शौक़ तो पथरा के रह गई इस जल्वा-ए-हसीं का नज़ारा न कर सके साक़ी तिरी निगाह का अंदाज़ देख कर मय-कश ब-क़द्र-ए-ज़र्फ़ तक़ाज़ा न कर सके ख़ुद ए'तिराफ़-ए-जुर्म किया हम ने ऐ 'मुशीर' लेकिन शिकस्त-ए-हुस्न गवारा न कर सके